शकील अख्तर
कांग्रेस को यह समझना जरूरी है कि इस समय उसका मुकाबला उन मोदी से है जिन्होंने सारी संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा कर लिया है। बस केवल एक राहुल बचे हुए हैं। जो हथियार डालने को तैयार नहीं है। जो बात उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा से पहले कही थी कि कोई चले या न चले में अकेला जाऊंगा। उस पर आज तक कायम हैं।
कांग्रेस का नया भवन अच्छा है लेकिन पार्टी इसे जो अपना भविष्य बनाने वाले और सब कुछ बदल देने वाले कारनामे की तरह पेश कर रही है यह खतरनाक है।
भवनों से सफलता नहीं मिलती। समस्याएं खत्म नहीं होती। उनसे तो लड़ना पड़ता है। पहचान की स्टेज तक तो पहुंच गई। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नवंबर में दिल्ली में हुई सीडब्ल्यूसी की बैठक में सब कुछ बता दिया कि पार्टी की हालत क्या है। भयंकर गुटबाजी है। रणनीति का अभाव है, संगठन नहीं है। और भी बहुत कुछ। कहा कि कठोर निर्णय लेना पड़ेंगे। जवाबदेही तय करना पड़ेगी। हम जब आपस में ही एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं तो विरोधियों को कैसे हरा पाएंगे? राहुल गांधी ने भी कहा कि सख्ती से काम लीजिए। कड़े एक्शन लीजिए।
तो यह समस्याओं की पहचान तो सही ढंग से हो गई। उसके बाद बेलगावी की एक और सीडब्ल्यूसी भी हो गई। अब समस्याओं के समाधान का समय है। संगठन के पुनर्निर्माण का।
इन सब का हल नए भवन से नहीं मिलेगा। हर बड़ी पार्टी का दिल्ली में अपना मुख्यालय है। भाजपा के तो दो एक मुख्यालय, एक उसका एक्सटेंशन। सीपीएम, सीपीआई, बसपा सबके अपने आफिस हैं। कांग्रेस का तो सबसे बाद में बना है। और शायद इसलिए वह खुशी भी ज्यादा प्रकट कर रही है।
ठीक है। बुरे समय में खुशी का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहिए। मगर उसे इलाज नहीं समझ लेना चाहिए। यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि इंदिरा भवन लोकतंत्र की रक्षा और सजग विपक्ष की भूमिका निभाने को तैयार। पार्टी की ऐतिहासिक विरासत का प्रतिबिम्ब इसमें देखना। पार्टी की विरासत बहुत बड़ी चीज है। आजादी के आन्दोलन का नेतृत्व करने के मौके से लेकर भारत के नवनिर्माण तक। मगर यह समझने की और इसके विचार लोगों तक लगातार पहुंचाते रहने की जरूरत है। विरासत के नाम पर नेताओं के फोटो लगाने से पार्टी का मैसेज कहीं नहीं जाएगा। और उन नेताओं के फोटो जिन्होंने पार्टी के साथ गद्दारी की हो लगाने से उल्टा मैसेज और चला जाएगा।
वीपी सिंह जिन्होंने बोफोर्स के झूठे आरोप लगाकर राजीव गांधी की सरकार ही पलट दी थी- का फोटो या सोनिया गांधी राहुल पर झूठे आरोप लगाने वाले गुलाम नबी आजाद का फोटो लगाकर कांग्रेस अपने वफादार नेताओं और कार्यकर्ताओं को क्या संदेश दे रही है? कि गद्दारी करोगे तो हमेशा याद रखे जाओगे। सम्मान मिलता रहेगा? लोग सफाई में कह रहे हैं कि इतिहास नहीं बदला जा सकता। फोटो कोई इतिहास होता है?
139 साल पुरानी पार्टी के पास इतिहास को बदल देने वाले लाखों फोटो हैं। दुनिया का भूगोल बदल देने वाले भी। उनमें आजाद और वीपी सिंह की तस्वीरों की क्या प्रासंगिकता है। किसी एक ग्रुप में साथ हैं बस यह! या तो कोई ऐसा फोटो हो जो एक मात्र हो। यह तो ऐसे हैं जिस नेचर को हजारों हजार फोटो हैं। राजीव गांधी के साथ वीपी का। और सोनिया राहुल प्रियंका के साथ आजाद का।
किसे दिखाना चाह रहे हो आप? राजीव, सोनिया, प्रियंका, राहुल के तो बहुत फोटो हैं उन नेताओं के साथ जो जीवन भर पार्टी के लिए समर्पित रहे। वीपी और आजाद के साथ राजीव सोनिया राहुल प्रियंका को दिखाने का क्या मैसेज है?
कांग्रेस के इन फैसलों को कोई नहीं समझ सकता। लेकिन यह स्पष्ट है कि इससे वफादार कार्यकर्ताओं और नेताओं में गलत संदेश जाता है। अब लोग कहने लगे हैं कि हरियाणा में पार्टी को हराने वाले नेताओं को चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं। वीपी और आजाद के फोटो लगाकर पार्टी ने बता दिया है कि नुकसान पहुंचाने वालों से पार्टी नाराज नहीं होती है बल्कि उनका सम्मान कायम रहता है या और बढ़ता है।
चिन्ता समर्पित कार्यकर्ताओं को करने की जरूरत है जो हरियाणा और महाराष्ट्र की हार के बाद हुई दिल्ली सीडब्ल्यूसी और बेलगावी सीडब्ल्यूसी में कहे गए वचनों पर भरोसा करने लगे थे। दिल्ली के बाद बेलगावी में तो खरगे ने एक कदम और आगे बढ़ाकर यहां तक कहा था कि पार्टी अच्छे मेहनती लोगों को ढूंढकर संगठन में जगह देगी।
कांग्रेस को यह समझना जरूरी है कि इस समय उसका मुकाबला उन मोदी से है जिन्होंने सारी संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा कर लिया है। बस केवल एक राहुल बचे हुए हैं। जो हथियार डालने को तैयार नहीं है। जो बात उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा से पहले कही थी कि कोई चले या न चले में अकेला जाऊंगा। उस पर आज तक कायम हैं। और न केवल कायम हैं बल्कि एक कदम आगे बढ़कर अभी दिल्ली में कांग्रेस चुनाव प्रचार का आगाज करते हुए सीलमपुर में यहां तक कह दिया कि जब तक मैं जिन्दा हूं कोई किसी कमजोर को गरीब को छू नहीं सकता।
राहुल को देश नहीं समझ रहा यह शिकायत जायज है। मगर खुद कांग्रेस नहीं समझ रही इसका क्या इलाज है? राहुल संगठन के आदमी नहीं हैं। वे सीधे जनता से जुड़ने वाले आदमी हैं। बहुत मुश्किल से महासचिव बने थे। फिर उपाध्यक्ष। फिर अध्यक्ष। यह कहते हैं परिवार सब पर अपना कब्जा रखना चाहता है। यह राजनीतिक बयान है। परिवार को राहुल को दबाव में लाने के लिए जनता में भ्रम पैदा करने के लिए।
राहुल चाहते तो सीधे प्रधानमंत्री भी बन सकते थे। और अगर वे 2009 के बाद कभी भी बन जाते तो इतनी सीटों से ज्यादा तो कांग्रेस की आ ही जातीं। 2014 चुनाव से पहले कांग्रेस हार मान चुकी थी। राहुल होते तो लड़ते। और अगर कांग्रेस थोड़ा सा भी लड़ते दिखती तो उसकी सौ से कम सीटें को किसी भी हालत में नहीं आतीं। इमरजेन्सी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 2014 से पहले तक के चुनावों में सबसे कम सीटें मिली थी। 154। मगर 2014 में तो वह केवल 44 पर आ गई।
लेकिन राहुल कुछ नहीं बने। पद और दिखावटी प्रतिष्ठा में उनकी रूचि नहीं रही। 2017 में भी पार्टी के दबाव में अध्यक्ष बने मगर केवल डेढ़ साल रहे। 2019 में इस्तीफा दे दिया।
राहुल क्या कर सकते हैं। यह उन्होंने बता दिया। एक जन नेता की तरह पार्टी और देश को निर्भय नेतृत्व। यह मैसेज अपने बोलने, जनता के बीच लगातार रहने से वे दे चुके हैं। राहुल किसी से नहीं डरता। जनता का जो भी दुखी परेशान है राहुल उनके साथ खड़ा है। और कोई किसी जाति, धर्म, गरीब, मध्यमवर्गीय किसी वर्ग का हो राहुल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, हर पीड़ित उनके लिए समान है और यही बात सीलमपुर में कही थी कि जब तक जिन्दा हूं किसी के साथ कोई अत्याचार नहीं होने दूंगा।
यह राहुल की ताकत और उनकी जनता में छवि है। इसी के अनुरूप कांग्रेस को उनके प्रोग्राम बनाना चाहिए। संविधान, जाति गणना, 50 प्रतिशत से ऊपर आरक्षण के मुद्दों को वे स्थापित कर चुके हैं। कांग्रेस को इसी के आसपास अपनी उस रणनीति को बनाना चाहिए जिसका जिक्र खरगे ने दिल्ली सीडब्ल्यूसी में किया था।
अब काम खरगे का और कांग्रेस के बाकी नेताओं का है कि वे जल्दी से जल्दी पार्टी संगठन के काम को पूरा करें। उन लोगों को बाहर करें जो राज्यों की विधानसभाओं की हार के सीधे जिम्मेदार हैं। कम से कम तीन राज्यों हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश के नेताओं ने तो सीधे-सीधे कांग्रेस को डूबोया है। इन सबको बाहर करने की जरूरत है।
रणनीति बनाना, ट्रेनिंग, यह सब बाद की चीजें हैं। पहला नेतृत्व दिखाना। सामने खरगे ही हैं। उन्हीं को करना पड़ेगा। सलाह चाहे जिस से लें। मगर संगठन को जल्दी से जल्दी पूरा बनाना पड़ेगा। नए आफिस में जगह दे दी है। क्या जरूरत थी। पुराने में अकबर रोड वाले पर ही कौन बैठता है? नए आफिस में जब नए लोग आते थे उन्हें बिठाना था। खुद कांग्रेस अध्यक्ष खरगे ने आफिस में बैठना शुरू नहीं किया है। दो साल से ज्यादा हो गए अध्यक्ष बने। दफ्तर में बैठना और लोगों से मिलने का सबसे ज्यादा असर होता है।
कांग्रेस के काम बहुत हैं। 11 साल से बहुत सुस्त रफ्तार में पार्टी चल रही है। नए आफिस को बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं। मगर यह भी 2009 में शुरू हुआ था 2025 में बन पाया। 16 साल बहुत होते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)